Friday, October 26, 2012

Banaras ki galiyon mein



ढूंढती हूँ मैं कुछ यहाँ, कुछ वहां
कभी अलमारी में देखा, कभी छज्जे पे
तिन के डब्बों में भी  देखा झाँक कर
याद आता है कहीं रखा था संजो के

क्या बताऊँ सहेली, खुद को भूल गई हूँ,
कहीं छोड़ आई हूँ. किसी किनार
किसी घाट पे, किसी मंदिर में,
किसी नैय्या में मैं थी सवार

उस शाम बैठी थी मैं, तारे थे, चाँद भी था
एक चाय की प्याली थी हाथ में
लगता था खो जाउंगी वहीँ,
ले जाएगी ये लहरें मेरा हाथ धर अपने साथ में

शायद वोही हुआ है सखी मेरे भी संग
काशी की गंगा में रम सी गई मैं
अब न घर में मिलती, न बगीचे में, न आँगन में,
पाऊँगी खुद को बनारस की गलियों में, लौट के ज़रूर आउंगी मैं..

त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ, एडिटिंग शीघ्र ही करुँगी, परन्तु ये शब्द रुके नहीं, इसलिए आज रात को जागकर इन्हें प्रस्तुत कर रही हूँ..
शुभ रात्रि!!

2 comments:


Kanupriya said...
Aha something on Banaras, lovely memories of that place and your lovely expression just made me so nostalgic, very nice Arpita. Keep it up!
Buddha in Action said...
Good One, keep it up. Banaras has that effect. Visited it recently after graduating nearly a decade ago. It still has that power. Although those who never have been there won't understand it. Nice pics of the Ghats btw. Brings back many memories. look forward to more. Cheers Devang Dixit

1 comment:


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